दयानन्द और पहाड़ियों का सफर
* इस लेख के पहले दयानन्द के बच्पन और घर से भाग जाना , अवरो की तरह से घूमना बता चुके हैं आज देंखे की और क्या कारनामें करते है चलो आइये देखते है .............
पहाड़ियों का सफर
* उनसे अलग होकर पुनः मैं बद्रीनारायण को गया विद्वान रावलजी उस समय उस मंदिर के मुख्य महंत था उसके साथ कही दिनों तक रहा फिर मैंने पूछा की यहाँ पर कोई साधु योगी है या नहीं उन्होंने कहा नहीं परन्तु यहाँ पर कई आते है उस समय मैंने दृढ़ संकल्प किया की पर्वतो ,पहाड़ो में किसी योगी पुरुष को अवश्य ढूंढ लूंगा।
* फिर निकले सफर में क्या पोपो है ? सूर्योदय होते ही पर्वतो की और चल पढ़ा और अलखांदा नदी के तट ( साहिल ) पर जा पंहुचा। उस नदी के बहते धरानुसार पर्वतो की रह में जंगलो की ओर बढ़ा पर्वत और सब रास्ते हिम ( बर्फ ) से ढके थे और बहुत ज्यादा घनी बर्फ उन रास्तो पर जमी हुई थी।
* अलखांदा नदी के स्त्रोत तक पंहुचा मुझको काफी कष्ट उठाना पढ़ा ( क्योकर इसे काम करते थे जिससे कष्ट हो ) पर जब वहाँ पंहुचा तो मै सारी चीजों से अनजान था , की चारो ओर ऊंचे - ऊंचे पहाड़ और आगे रास्ता भी बंद था । कुछ समय पश्चात वहाँ उस जगह पर पहुंच गया जहाँ आगे कोई रास्ता ही नहीं बचा उस समय मै विचार सोच में पढ़ गया अब क्या करना चाहिए उसके बाद मैंने नदी पार करने का इराधा किया , जो मैंने अपने शरीर पर कपड़े पहने थे वे बिलकुल ही हलके और कम थे !
( क्या लंगोट पर चल पढ़े थे ? )
( क्या लंगोट पर चल पढ़े थे ? )
* कुछ देर बाद ठण्ड और बढ़ चली जिसका सहन करना बड़ा ही मुश्किल था भूख और प्यास भी काफी लगी थी जिसकी वजह से मैंने बर्फ खाना शुरू कर दिया ( क्या मुर्ख व्यक्ति है ये है समाज सुधारक ) पर उस से मुझे कोई भी लाभ नहीं हुआ फ़ीर मैने नदी में उतर कर उसे पार करने लगा कही -कही नदी गहराई १० हाथ का कही ४ गज कही ५ गज और पूरी नदी बर्फ के छोटे छोटे टुकड़ो से भरी पढ़ी थी।
* बर्फ के आड़े तिरछे टुकड़ो ने मेरे पाव घायल कर दिए थे पाव से खून बहने लगा था बर्फ की ठंडक की वजह से पाव भी सुन्न हो गए थे मुझे विचार आ रहा था की मैं नदी में ही दम तोड़ दूंगा किसी तरह से भाग दौड़ कर नदी पार कर ली नदी के दूसरी तरफ जा कर मेरी कुछ ऐसी हालत बनी जैसे जीवित रहने के बाद भी मृत्य शव के सामान ।
* तब मैंने अपने शरीरी के कपडे उतर कर पूर्णः नंग हो गया । क्या एक लंगोट पहनी थी वे भी उतार दी ।
दयानंद सरस्वती |
* और उसको पाऊ ,जांघो से लपेट दिया ऐसी हालत हो चुकी थी ,की ना तो हिल सकता था ना ही चल सकता था उस समय इतना असाहय था अगर किसी की सहयता मिल जाये तो आगे की ओर चलू पर सहयता की कोई उम्मीद न थी मैंने चारो दिशाओ में देखा तो मुझे दो पहड़ि व्यक्ति नजर आये और वे लोग मेरे पास आये और कहाँ चलो हमारे घर हम तुम्हारी दवा करेंगे और खाने पिने को कुछ देंगे पर मैंने मना कर दिया फिर वे लोग चल दिए उस समय मेरी अवस्था ऐसी थी कि हिल - ढुल ने से मर जाना बेहत्तर था ।
* जब मुझे शांति मिली तो थोड़े देर बाद मै फिर आगे की और बढ़ा और पकस में ही बद्रीनारायण जा पहुँचा मुझे देख कर रावलजी और उनके साथी घबरा गए पूछने लगे तुम कहा थे ? ( रावलजी नशे की हालत निदियो में घूम फिर रहे थे और इनसे कोई दूसरी अपेक्षा रख सकते है आप ही बताये ?) फिर उन सब को पूरा किस्सा सुनाया फिर भोजन किया जिससे मुझ में फिर शक्ति आ गई । ( ओ हो सुपर मैन )
* फिर दूसरे दिन सूर्योदय के समय रावलजी से जाने की आज्ञा ली और अपनी यात्रा में लौटता हुआ रामपुर की और चल पड़ा चिल्का घाटी से उतर कर जल्द ही रामपुर पहुच गया वह पहुच कर मैंने प्रशिद्ध रामगिरि के स्थान पर निवास किया यह अति प्रशिद्ध व्यक्ति था रातों में नही सोता था और रातों में ऊंची ऊंची आवाजो से चीखे मारता ( वाहहह दो एक जैसे आखिर कार मिल ही गये ) रातों को रोता और चीखे मारता
( एक को रात की तकफिल एक को दिन की बेचारे )
* फिर वहाँ से चल के काशीपुर गया वहा से द्रोणासागर जा पहुँचा वही मैने पूरा शरद ऋतु काटा अतः मुरादाबाद होते हुए सम्भल जा पहुँचा फिर में गंगा नदी के तट पर आ पहुँचा ( क्या हुआ नशेड़ी व्यक्ति क्योंकर इधर उधर दीवानों की तरह से घूमता था 🤔 😏 ) कुछ पुस्तकें मेरे पास थी जो मैं गाड़ियों में पढ़ा करता ऐसा लंबा चौड़ा विवरण था कि मेरी बुद्धि में कभी न ला सका नहीं समझ सका ।
( तुम्हे स्वयं की भाषा वाली पुस्तकें मंदबुद्धि में नही घुस सकी तो क़ुरआन तो दूर दूर तक तेरे दिमाग से बाहेर की है क्यों कि क़ुरान अक्ल मंदो के लिए है नाकि मूर्खो के लिए । )
दयानंद और हत्या
* एक दिन देव संयोग से एक शव ( लाश ) मुझे पानी मे बहता हुआ दिखा तब समुचित अवसर प्राप्त हुआ कि मै उसकी जांच करू और अपने मन में उन पुस्तकों के बारे में विचार उत्पन्न हो चुके थे ( वेद आदि ) उनका फैसला करता हु की वे सत्य है या असत्य ?
* जो भी ग्रन्थ मेरे पास थे सब मेरे पास रख कर नदी में कूद लगा दी और जल्दी से शव के पास पहुंचा कर शव को जैसे तैसे नदी के तट पर ले आया , फिर एक नुकीले चाकू से उसके अंग काटना शुरू कर दिया काट पिट के उसका दिल निकाल के उसकी पूरी तरीके से जाँच की उसी प्रकार सिर आदि अंग काट काट के पृथक पृथक रख दिये जितने ग्रन्थ थे उसमे जो लिखा था उसके आधार पर हर एक एक अंग की जांच की परतु बिल्कुल उसके विपरीत दिखा जितने ग्रन्थ थे सबको फाड़ फाड़ के शव के साथ नदी में फेंक दिए
अब भी कुछ शंका रहती है ये व्यक्ति के पागल होने में
* उसी समय से मैंने यह परिणाम निकलता गया कि वेद , उपिनिषद , पतज्जल और सांख्यशास्त्र के अतिरिक्त अन्य सभी पुस्तकें जो ज्ञान विज्ञान में लिखी गई है वे सब मिथ्या और झुटे है !
( ये क्या कह रहे हो दयानंद जी होश में तो हो.......)
ऐसी ही कुछ दिनों में विचरते हुए फरुर्खाबाद पहुँचा उर श्रुगिरामपुर से हो कर छावनी की पूर्व दिशा वाली सड़क से कानपुर जाने वाला था सवंत 1912
( 1855 ईसवी ) विक्रम समाप्त हुआ उसके अगले 5 माह कानपुर और अन्य प्रशिद्ध स्थान देखे ।
* तो ये थे दयानंद जी अभी कोई शक रह जाता है इनका दीवाना होने में , एक दीवाना किस्सम का इन्शान था , जो आवरो कि तरह से घूमते फिरते थे , कभी बर्फ के पहाड़ो में चले जा रहे है कही बर्फीली नदी में कूद रहे है कही लाश का पोस्टमार्टम कर रहे है कभी अपने ग्रन्थों को ही मिथ्या और झुट कह रहे है आखिर ये सब करने की वजह क्या है , वो अगले लेख में उसका राज खुलेगा ...................................
धन्यवाद
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